भाजपा के गले की फ़ांस बना किसान आन्दोलन ?



देश में पिछले कई महीनों से चल रहा किसान आन्दोलन क्या भाजपा के गले की फ़ांस बन गया है? या फ़िर शाहीन बाग आन्दोलन की तरह किसान आन्दोलन भी यूं ही बिना किसी नतीजे के दम तोड़ देगा? क्या किसानों और सरकार के बीच फ़िर से बातचीत हो सकती है ? ऐसे अनगिनत सवाल देश की जनता के सामने मुंह बाए खड़े हैं, क्योंकि किसान आन्दोलन के लम्बा चलने से ना केवल किसानों बल्कि व्यापारियों, आम आदमी पर भी फ़र्क पड़ने लगा है। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी किसानों के यूं सड़कों पर बैठने पर चिंता जताई है और सरकार से इसका जल्द से जल्द समाधान तलाशने को कहा है। 

यूं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही सरकार के कई मन्त्रियों ने बार बार संसद से लेकर किसानों से जुड़े हर बड़े सरकारी प्लेटफ़ार्म पर किसानों को भरोसा दिलाया है कि नये बने कृषि कानून किसानों के हित के लिए बनाये गये हैं, ताकि किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिल सके। सरकार ने बार बार कहा है कि इन कानूनों के बन जाने से किसानों को अपनी फ़सल बेचने के लिए सरकार के साथ ही निजी क्षेत्र का विकल्प भी मिलेगा। सरकार ने साफ़ तौर पर कहा है कि सरकार किसानों का अनाज पहले की तरह ही खरीदती रहेगी। सरकार ने कहा है कि मंडियों को बन्द किये जाने की बात महज अफ़वाह है। 

सरकार के मुताबिक, इन नये कृषि कानूनों से किसानों की आय बढ़ेगी और उन्हें अपनी फ़सल के लिए पहले से बेहतर अवसर मिलेंगे। लेकिन इन सबके बावजूद आखिरकार किसान आन्दोलन पर क्यों उतारु हैं। दरअसल किसानों को डर है कि सरकार धीरे धीरे मंडियों को खत्म कर देगी, ये कानून तो शुरुआत भर हैं। इससे वो पूरी तरह से निजी कम्पनियों के भरोसे रह जाएंगे और वो मनमाने दाम पर उनकी फ़सल को खरीदेंगे। अगर सरकार को किसानों की इतनी ही चिंता है तो वो एमएसपी को खत्म न करने के लिए कानून क्यों नहीं बना देती। एमएसपी को कानूनी तौर पर मान्य क्यों नहीं कर देती। ऐसे ही कई सवाल हैं, जो सरकार और किसानों के बीच गतिरोध का कारण बने हुए हैं। हालांकि इस गतिरोध को तोड़ने के लिए सरकार ने नये बने कृषि कानूनों में संशोधन की बात कही है। लेकिन किसान नेता सरकार की कोई बात सुनने को राजी नहीं हैं, तो क्या किसान आंदोलन को राजनैतिक दलों और भाजपा विरोधी सरकारों द्वारा हवा दी जा रही है। इस सवाल का उत्तर जानने के लिए इस आन्दोलन की जड़ में जाना होगा। इस आन्दोलन की आग सबसे पहले पंजाब से भड़की, फ़िर हरियाणा और फ़िर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में। इसके अलावा इस आन्दोलन का पूरे देश में कहीं असर नहीं है। किसानों के आन्दोलन को दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा राजनैतिक संरक्षण दिया गया। पजाब की कांग्रेस सरकार द्वारा पोषण दिया गया। इसके साथ ही दोनों सरकारों पंजाब की कांग्रेस सरकार और दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा इस आन्दोलन को खुले तौर पर समर्थन दिया गया। इसके सीधे सीधे मायने हैं कि किसान आंदोलन को भाजपा विरोधी राजनैतिक दलों द्वारा खाद पानी मुहैया कराया जा रहा है, तो क्या भाजपा किसान आन्दोलन की आड़ में विरोधी दलों के एजेंडे में फ़ंस गई है और उसे इससे निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है। अब तो उसके ही कुछ सांसद किसानों से बात कर इस आन्दोलन को जल्द से जल्द खत्म करवाने की बात कह रहे हैं।

हालांकि भाजपा को किसान आन्दोलन की अभी तक कोई बड़ी कीमत नहीं चुकानी पड़ी है। लेकिन आगे उसका बहुत कुछ दांव पर है खासकर आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में, जिसमे उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन का रूख राज्य में उसकी सम्भावनाओं पर पानी फ़ेर सकता है। हालांकि अभी तक ज्यादातर सर्वे रिपोर्ट  में उत्तर प्रदेश में फ़िर से भाजपा सरकार बनने की बात कही जा रही है, लेकिन अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों ने भाजपा के खिलाफ़ एकमुश्त वोट कर दिया तो भाजपा को दिक्कत हो सकती है, क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब 80 विधानसभा सीटे ऐसी हैं, जहां किसानों की बहुतायत है, जो राज्य में किसी की भी सरकार बनाने और बिगाड़ने की कुव्वत रखते हैं। हालांकि ऐसा कभी नहीं हुआ, क्योंकि इस क्षेत्र के ज्यादातर किसानों में भाजपा का अपना कोर वोट बैंक है, जो भाजपा के फ़ेवर में भले ही वोट ना करे, लेकिन कभी खिलाफ़ वोट नहीं करता। पिछले कई चुनाव के आंकड़े तो यही गवही दे रहे हैं।