असमंजस में कांग्रेस


रिपोर्ट - बिशन ग़ुप्ता



कांग्रेस पार्टी अपने बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राहुल गांधी ने जिम्मेदारी स्वीकारते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था और पार्टी से किसी और को अध्यक्ष चुनने को कह दिया। इसके बाद पार्टी में प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाने की बात सामने आई, लेकिन राहुल ने उस पर वीटो लगा दिया और कहा कि पार्टी गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को पार्टी का अध्यक्ष चुने।  इसके बाद पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए युवा नेतृत्व को जिम्मेदरी सौंपने की बात उठी। सबसे पहले इसे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने उठाया, फ़िर मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष मुरली देवड़ा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया या सचिन पायलट में से किसी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया। लेकिन पार्टी के बुजुर्ग नेताओं का धड़ा किसी अनुभवी व्यक्ति को पार्टी की कमान सौंपने का इच्छुक था। मुकुल वासनिक, सुशील शिंदे, मल्लिकार्जुन खड़गे और मोतीलाल बोरा आदि के नाम पार्टी अध्यक्ष पद की दौड़ में रहे। पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक समिति (सीडब्लूसी) की बैठक में में दोनों धड़ों मे मतभेद साफ़ दिखे। जब पार्टी इस मुद्दे पर दो फ़ाड़ हो गयी, तो पार्टी नेताओं की निगाहें एक बार फ़िर गांधी परिवार पर आकर टिक गयी और सोनिया गांधी को पार्टी का अन्तरिम अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव सामने आया, जिसका प्रियंका गांधी ने भी समर्थन कर दिया। इसके बाद सोनिया गांधी ने पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बनने के लिए हामी भर दी। लेकिन इस सारी कवायद के बीच यह बात स्पष्ट हो गयी कि पार्टी की युवा और बुजुर्ग नेताओं के बीच विचारों की गहरी खाई है। शायद यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की छाया से बाहर नहीं निकल पाई है और राहुल गांधी के लाख मना करने के बाद भी पार्टी की कमान सोनिया गांधी को संभालनी पड़ी। पार्टी के युवा और अनुभवी नेताओं के बीच गहरी होती खाई न सिर्फ पार्टी को वैचारिक स्तर पर  खोखला कर रही है, साथ ही इसका जनता के बीच में गलत संदेश जा रहा है। सन्देश साफ़ है कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा है। पार्टी में एक ओर जहां अन्दरूनी कलह चरम पर है, तो वहीं हर अहम मुद्दे पर पर एकराय नज़र नहीं आती। इससे पहले जनार्दन द्विवेदी समेत कई बड़े नेताओं ने पार्टी अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया पर ही सवाल उठाये थे। पार्टी में लीडरशिप का अभाव साफ़ देखने को मिल रहा है। पार्टी ना तो घर को संभाल पा रही है और ना ही अपने सहयोगी दलों कोयही कारण रहा कि राज्यसभा में बहुमत ना होने के बावजूद मोदी सरकार तीन तलाक जैसे विधेयक को पास कराकर ले गयी, जबकि पहले इसका गिरना तय माना जा रहा था। पार्टी के बड़े नेता भी यह मानते हैं कि अगर उस समय पार्टी में लीडरशिप होती और सही रणनीति बनाई गयी होती , तो राज्यसभा में तीन तलाक बिल का गिरना तय था। यह कांग्रेस की रणनीतिक चूक ही थी, कि राज्यसभा में तीन तलाक बिल पर मतदान के मौके पर पार्टी के कई सहयोगी दलों ने वॉकआउट कर दिया था और सरकार इस बिल को आसानी से पास कराकर ले गयी। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद ३७० को हटाने को लेकर पार्टी में दरार साफ़ नजर आयी । पार्टी का एक धड़ा जहां जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद ३७० को हटाने के मोदी सरकार के साथ खड़ा था, जिसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, दीपेन्द्र हुड्डा और जनार्दन द्विवेदी जैसे वरिष्ठ नेता शामिल थे, तो वहीं राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद और चिदम्बरम जैसे नेता सरकार के फैसले का मुखर विरोध कर रहे थे। शायद यह पहला मौका है कि पार्टी इतने अहम इश्यू पर कोई एकराय नहीं बना पाई। इस इश्यू पर पार्टी में इतना असमंजस है कि अनुच्छेद ३७० हटने के बाद भी पार्टी नेताओं की बेलगाम बयानबाजी लगातार जारी है। इसे लीडरशिप की कमजोरी ही कहा जाएगा कि पार्टी नेताओं को पता ही नहीं है कि उन्हें मीडिया  और जनता के सामने क्या बोलना है। यह सब तब हो रहा है , जब पार्टी सोनिया गांधी को अपना अंतरिम अध्यक्ष चुन चुकी है। उधर लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से पार्टी में नेताओं के पलायन का जो दौर शुरू हुआ, वो थमने का नाम ही नहीं ले रहा। कांग्रेस के छोटे कार्यकर्ता  से लेकर बड़े नेताओं तक को उम्मीद है कि सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने से स्थितियां सुधर जाएंगी और पार्टी एक बार फ़िर वापसी करेगी।