राफेल पर रार


राफ़ेल सौदे को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप जिस स्तर तक पहुंच गये है, वो दर्शाता है कि पिछले कुछ सालों में हमारी राजनीति का स्तर किस हद तक गिरा है। विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद की गरिंमा तक का ख्याल नहीं रखा गया, तो सरकार की तरफ से भी आरोपों का जवाब आरोप लगाकर ही दिया जा रहा है। राहुल गांधी फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के जिस बयान को लेकर अक्रामक है, उस पर खुद ओलांद ही अडिंग नहीं है। ओलांद ने जहां अपने पहले बयान में कहा था कि राफेल सौदे में भारत सरकार ने ही रिलायंस डिफेंस का नाम बतौर साझीदार प्रस्तावित किया था, लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या इसके लिए भारत सरकार की ओर से दबाव डाला गया, तो उनका कहना था कि उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं। इस बारे में दसॉल्ट एविएशन हीं बता सकती है। ओलांद के दोनों बयान विरोधाभाषी है। इसके साथ ही फ्रांस की सरकार और राफेल निर्माता कम्पनी दसॉल्ट एविएशन ने भी ओलांद के बयान का खंडन किया है। फ्रांस की वर्तमान सरकार ने कहा है कि फ्रेंच कम्पनियों को भारत में सहयोगी चुनने की आजादी है और इसमें फ्रांस सरकार की कोई भूमिका नहीं है। वहीं राफेल निर्माता कम्पनी दसॉल्ट एविएशन ने कहा है कि अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस के साथ साझेदारी का फैसला उसका अपना था, इसमें भारत या फ्रांस सरकार की कोई भूमिका नहीं है। फ्रांस सरकार और दसॉल्ट कम्पनी दोनों ही भारत सरकार के रुख की पुष्टि कर रहीं है। ऐसे में राफेल सौदे में राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के आरोप धरातल पर नहीं टिकते। दरअसल, कांग्रेस केवल बयानों के आधार पर आरोप लगा रही है, उसके पास कोई पुख्ता सबूत नहीं है। कांग्रेस भी जानती है कि रक्षा सौदों में घूस की बात साबित करना टेढ़ी खीर है और इस मामले का भी हश्र वैसा ही हो सकता है, जैसा बोफोर्स सौदे का हुआ। शायद कांग्रेस की सोच है कि राफेल सौदे को उसी तरह उछाला जाये, जैसे वीपी सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे को उछाला था और इसमें एक बड़े घोटाले की बात कही थीं। इसके बाद जनता की नज़र में बोफोर्स को लेकर कांग्रेस की नकारात्मक छवि बन गयीं और जिसके चलते अगले चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई थी। अब कांग्रेस वही रणनीति अपनाकर भाजपा का पासा पलटने में जुटी है। अब देखना यह है कि कांग्रेस अपनी रणनीति में कामयाब हो पाती है या नहीं और क्या राहुल गांधी अगले वीपी सिंह बन सकते है?